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Nairogyam ( नैरोग्यम् ) – योगाग्निमयं शरीरम्

Nairogyam Foundation

( Yog practice ,research & certification institute founded as an NPO u/s 8 of the Comoanies Act )

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नैरोग्यम् ‘नि ‘उपसर्ग और ‘रुज्’धातु से उत्पन्न “नैरोग्यम्”शब्द है!संस्कृत व्याकरण की दृष्टि से ‘नि’ उपसर्ग का अर्थ निश्चितार्थ के रूप में होता है! यहाँ नैरोग्यम् शब्द में ‘नि’उपसर्ग पूर्ण रूप से विकार को समाप्त करने के अर्थ में किया गया है!

‘रुज्’ का अर्थ ‘आधि ‘व ‘व्याधि ‘होता है!

आधि का अर्थ – मानसिक विकार,

व्याधि का अर्थ – शारीरिक विकार,

मानसिक विकारों व शारीरिक विकारों को रोकने व समाप्त करने के भाव को प्रकट करने वाला शब्द “नैरोग्यम्” है!

मनुष्य के अंदर मानसिक एवं शारीरिक विकारों के रोग उत्पन्न होते हैं उसका प्रमुख कारण ‘मन’ ही होता है!इसलिए महर्षि पतंजलि ने” योग” को इस सूत्र में परिभाषित किया है –

“योगश्चित्तवृत्ति निरोध :” अर्थात् मन की वृत्तियों का निरोध ही योग है!

इसलिए मन को साधने का सबसे अच्छा उपाय “योग “है!

योग से केवल मन ही नहीं अपितु मनुष्य के व्यक्तिव  का निर्माण करने वाले

1- शरीरिक स्तर (Physical Level )

2-मानसिक स्तर (Mental Level )

3-भावनात्मक स्तर (Emotional Level )

4-बौद्धिक स्तर ( Intellectual Level )

5- आध्यात्मिक स्तर (Spritual Level )

 और  मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तिव को उत्कृष्ट बनाने के लिए तैत्तरीय उपनिषद में निम्न पञ्च कोषों में विभाजित किया गया है

1-अन्नमय कोष Consisting of the physical limbs

2-प्राणममय कोष (of Vital energy )

3-मनोमय कोष (of Mind)

4-विज्ञानमय कोष (of Intellect )

5-आनंदमय कोष (of Bliss)

को सम या balance करता है,

नैरोग्यम्,पतंजलि ऋषि के अष्टांग योग व हठयोग (ष्टकर्म इत्यादि) से मनुष्य के जीवन को उत्कृष्ट और सम(Balance )स्थिति  करने का कार्य करता है जिससे आत्मा व चेतना के चतर्थ स्तर “तुरीय अवस्था “को प्राप्त करते हैं जिसमें इन्द्रियां व मन समस्थिति को प्राप्त हो जाते हैं अर्थात् स्वाभावत :नियंत्रित हो जाते हैं –

“आत्मन्येवातमन : तुष्ट :स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते “(Gita2/55)